भाषाविज्ञान का अपना सत्यापित एवं स्थापित सच यह भी है कि इसमें किसी भाषा को इसके संरचनात्मक विविधताओं से पहचाना जा सकता है, वहीं दूसरी ओर भाषा की सबल एवं संवेदनात्मक सच्चाई भी वास्तविकताओं से सरोकार कराने में छिपी होती है, जो न तो लोक एव लोक-भाषा से इतर है और न ही अतिरिक्त। इन सबके केंद्र में लोक की अपनी सैद्धांतिकी होती है, जो समय के अनुभवों और जीवनसंदर्भो से अनुप्राणित होती रही है। उसने भी समय को परखा है। यहाँ हमें अपने लोक एवं भाषा को परखने के लिए यह समझना होगा कि “मनुज बली होत नहीं, समय होत बलवान, भिलन लूटी गोपिका, वही अर्जुन वहीं बाना” मतलब यह कि विपरीत समय ने ही अर्जुन जैसे योद्धा को भी नि:सहाय स्थिति में लाया था। ऐसे में हमें इस सत्य को स्वीकार करना होगा कि समय ही मनुष्य को बलवान और निर्बल बनाता है। तो क्या हमें यह स्वीकार करना होगा कि ग्रीक, लैटिन एवं संस्कृत जैसी प्रभावशाली भाषाएँ अपने प्रतिकूल समय के कारण सिमट गई? तो क्या यह परम सत्य है कि समय ही भाषा को प्रभावशाली एवं अप्रभावशाली बनाता है? इसीलिए भाषा, समय और संवाद के विमर्श की शुरुआत समय की शक्ति, संयोग एवं सदुपयोग से करना उचितहोगा। क्योंकि भाषा को जीवंत बनाने वाला ही अगर समय के समक्ष बौना है, तो भाषा के सामर्थ्य, संयोग, संभावना एवं सदुपयोग को समय से इतरसमझने का प्रयास अकादमिक नहीं होगा। भाषा की परिस्थिति एवं पारिस्थितिकी को सुनिश्चित, रेखांकित, पारिभाषित एवं प्रायोजित करने वाला दरअसल दूसरा कोई और नहीं, बल्कि समय ही है। स्पष्ट है कि समय ही किसी भी भाषा के लिए अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियाँ सृजित करता है। भाषाई संवाद भी अपना रुख, आकार एवं प्रभाव समय के अनुसार ही ग्रहण करता है। अर्थात् यह भी कहा जा सकता है कि भाषाई संवाद का भी अपना मौसम होता है। समय के विपरीत कोई भी भाषा एवं संवाद अपना प्रभाव कायम रखने में कभी भी सफल नहीं हुआ है और न तो भविष्य में ऐसी कोई संभावना दिखती है, क्योंकि भाषा को जीवंत करने वाला एवं संवाद को निर्मित करने वाला ही अगर समय की गति रुझान एवं संवेदना से संचालित होता है तो भला उस पर आश्रित रहने वाले को समय को चुनौती देने में सफलता कैसे मिल सकती है? यही कारण है कि समयानुकूल भाषा एवं संवादही गरिमामयी होता है। तो क्या भाषा, समय एवं संवाद एक दूसरे के पूरक हैं। इस प्रश्न का सपाट उत्तर देना किसी के लिए किसी भी दृष्टि से संभव नहीं दिखता है। किंतु इतना तो सर्वथा सच है कि भाषा एवं समय के संवाद को एक दूसरे से इतर नहीं रखा जा सकता है। भाषा को अपने अस्तित्व में बने रहने के लिए समय एवं स्थान (स्पेस) चाहिए, तो वहीं दूसरी ओर समय एवं संवाद को भी अपा अस्तित्व दर्शाने के लिए भाषा जैसी संवाहिका चाहिए, जिसे इस चित्र के माध्यम से समझा जा सकता है
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भाषाविज्ञान का अपना सत्यापित एवं स्थापित सच यह भी है कि इसमें किसी भाषा को इसके संरचनात्मक विविधताओं से पहचाना जा सकता है, वहीं दूसरी ओर भाषा की सबल एवं संवेदनात्मक सच्चाई भी वास्तविकताओं से सरोकार कराने में छिपी होती है, जो न तो लोक एव लोक-भाषा से इतर है और न ही अतिरिक्त। इन सबके केंद्र में लोक की अपनी सैद्धांतिकी होती है, जो समय के अनुभवों और जीवनसंदर्भो से अनुप्राणित होती रही है। उसने भी समय को परखा है। यहाँ हमें अपने लोक एवं भाषा को परखने के लिए यह समझना होगा कि “मनुज बली होत नहीं, समय होत बलवान, भिलन लूटी गोपिका, वही अर्जुन वहीं बाना” मतलब यह कि विपरीत समय ने ही अर्जुन जैसे योद्धा को भी नि:सहाय स्थिति में लाया था। ऐसे में हमें इस सत्य को स्वीकार करना होगा कि समय ही मनुष्य को बलवान और निर्बल बनाता है। तो क्या हमें यह स्वीकार करना होगा कि ग्रीक, लैटिन एवं संस्कृत जैसी प्रभावशाली भाषाएँ अपने प्रतिकूल समय के कारण सिमट गई? तो क्या यह परम सत्य है कि समय ही भाषा को प्रभावशाली एवं अप्रभावशाली बनाता है? इसीलिए भाषा, समय और संवाद के विमर्श की शुरुआत समय की शक्ति, संयोग एवं सदुपयोग से करना उचितहोगा। क्योंकि भाषा को जीवंत बनाने वाला ही अगर समय के समक्ष बौना है, तो भाषा के सामर्थ्य, संयोग, संभावना एवं सदुपयोग को समय से इतरसमझने का प्रयास अकादमिक नहीं होगा। भाषा की परिस्थिति एवं पारिस्थितिकी को सुनिश्चित, रेखांकित, पारिभाषित एवं प्रायोजित करने वाला दरअसल दूसरा कोई और नहीं, बल्कि समय ही है। स्पष्ट है कि समय ही किसी भी भाषा के लिए अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियाँ सृजित करता है। भाषाई संवाद भी अपना रुख, आकार एवं प्रभाव समय के अनुसार ही ग्रहण करता है। अर्थात् यह भी कहा जा सकता है कि भाषाई संवाद का भी अपना मौसम होता है। समय के विपरीत कोई भी भाषा एवं संवाद अपना प्रभाव कायम रखने में कभी भी सफल नहीं हुआ है और न तो भविष्य में ऐसी कोई संभावना दिखती है, क्योंकि भाषा को जीवंत करने वाला एवं संवाद को निर्मित करने वाला ही अगर समय की गति रुझान एवं संवेदना से संचालित होता है तो भला उस पर आश्रित रहने वाले को समय को चुनौती देने में सफलता कैसे मिल सकती है? यही कारण है कि समयानुकूल भाषा एवं संवादही गरिमामयी होता है। तो क्या भाषा, समय एवं संवाद एक दूसरे के पूरक हैं। इस प्रश्न का सपाट उत्तर देना किसी के लिए किसी भी दृष्टि से संभव नहीं दिखता है। किंतु इतना तो सर्वथा सच है कि भाषा एवं समय के संवाद को एक दूसरे से इतर नहीं रखा जा सकता है। भाषा को अपने अस्तित्व में बने रहने के लिए समय एवं स्थान (स्पेस) चाहिए, तो वहीं दूसरी ओर समय एवं संवाद को भी अपा अस्तित्व दर्शाने के लिए भाषा जैसी संवाहिका चाहिए, जिसे इस चित्र के माध्यम से समझा जा सकता है
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Product Details
ISBN-13: | 9789390755196 |
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Publisher: | Today & Tomorrow's Printers & Publishers |
Publication date: | 06/30/2017 |
Sold by: | Barnes & Noble |
Format: | eBook |
File size: | 6 MB |
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