मैकूलाल अमरकान्त के घर शतरंज खेलने आये, तो देखा, वह कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रहे हैं। पूछा-कहीं बाहर की तैयारी कर रहे हो क्या भाई? फुरसत हो, तो आओ, आज दो-चार बाजियाँ हो जाएँ।
अमरकान्त ने सन्दूक में आईना-कंघी रखते हुए कहा-नहीं भाई, आज तो बिलकुल फुरसत नहीं है। कल जरा ससुराल जा रहा हूँ। सामान-आमान ठीक कर रहा हूँ।
मैकू-तो आज ही से क्या तैयारी करने लगे? चार कदम तो हैं। शायद पहली बार जा रहे हो?
‘अमर-हाँ यार, अभी एक बार भी नहीं गया। मेरी इच्छा तो अभी जाने को न थी; पर ससुरजी आग्रह कर रहे हैं।
मैकू-तो कल शाम को उठना और चल देना। आध घण्टे में तो पहुँच जाओगे।
अमर-मेरे हृदय में तो अभी से जाने कैसी धडक़न हो रही है। अभी तक तो कल्पना में पत्नी-मिलन का आनन्द लेता था। अब वह कल्पना प्रत्यक्ष हुई जाती है। कल्पना सुन्दर होती है, प्रत्यक्ष क्या होगा, कौन जाने।
मैकू-तो कोई सौगात ले ली है? खाली हाथ न जाना, नहीं मुँह ही सीधा न होगा। अमरकान्त ने कोई सौगात न लिया था। इस कला में अभी अभ्यस्त न हुए थे।
मैकू बोला-तो अब ले लो, भले आदमी! पहली बार जा रहे हो, भला वह दिल में क्या कहेंगी?
अमर-तो क्या चीज ले जाऊँ? मुझे तो इसका ख्याल ही नहीं आया। कोई ऐसी चीज़ बताओ, जो कम खर्च और बालानशीन हो; क्योंकि घर भी रुपये भेजने हैं, दादा ने रुपये माँगे हैं।
मैकू माँ-बाप से अलग रहता था। व्यंग्य करके बोला-जब दादा ने रुपये माँगे हैं, तो भला कैसे टाल सकते हो! दादा का रुपये माँगना कोई मामूली बात तो है नहीं?
अमरकान्त ने व्यंग्य न समझकर कहा-हाँ इसी वजह से तो मैंने होली के लिए कपड़े भी नहीं बनवाये। मगर जब कोई सौगात ले जाना भी जरूरी है, तो कुछ-न-कुछ लेना ही पड़ेगा। हलके दामों की कोई चीज़ बतलाओ।
मैकूलाल अमरकान्त के घर शतरंज खेलने आये, तो देखा, वह कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रहे हैं। पूछा-कहीं बाहर की तैयारी कर रहे हो क्या भाई? फुरसत हो, तो आओ, आज दो-चार बाजियाँ हो जाएँ।
अमरकान्त ने सन्दूक में आईना-कंघी रखते हुए कहा-नहीं भाई, आज तो बिलकुल फुरसत नहीं है। कल जरा ससुराल जा रहा हूँ। सामान-आमान ठीक कर रहा हूँ।
मैकू-तो आज ही से क्या तैयारी करने लगे? चार कदम तो हैं। शायद पहली बार जा रहे हो?
‘अमर-हाँ यार, अभी एक बार भी नहीं गया। मेरी इच्छा तो अभी जाने को न थी; पर ससुरजी आग्रह कर रहे हैं।
मैकू-तो कल शाम को उठना और चल देना। आध घण्टे में तो पहुँच जाओगे।
अमर-मेरे हृदय में तो अभी से जाने कैसी धडक़न हो रही है। अभी तक तो कल्पना में पत्नी-मिलन का आनन्द लेता था। अब वह कल्पना प्रत्यक्ष हुई जाती है। कल्पना सुन्दर होती है, प्रत्यक्ष क्या होगा, कौन जाने।
मैकू-तो कोई सौगात ले ली है? खाली हाथ न जाना, नहीं मुँह ही सीधा न होगा। अमरकान्त ने कोई सौगात न लिया था। इस कला में अभी अभ्यस्त न हुए थे।
मैकू बोला-तो अब ले लो, भले आदमी! पहली बार जा रहे हो, भला वह दिल में क्या कहेंगी?
अमर-तो क्या चीज ले जाऊँ? मुझे तो इसका ख्याल ही नहीं आया। कोई ऐसी चीज़ बताओ, जो कम खर्च और बालानशीन हो; क्योंकि घर भी रुपये भेजने हैं, दादा ने रुपये माँगे हैं।
मैकू माँ-बाप से अलग रहता था। व्यंग्य करके बोला-जब दादा ने रुपये माँगे हैं, तो भला कैसे टाल सकते हो! दादा का रुपये माँगना कोई मामूली बात तो है नहीं?
अमरकान्त ने व्यंग्य न समझकर कहा-हाँ इसी वजह से तो मैंने होली के लिए कपड़े भी नहीं बनवाये। मगर जब कोई सौगात ले जाना भी जरूरी है, तो कुछ-न-कुछ लेना ही पड़ेगा। हलके दामों की कोई चीज़ बतलाओ।
Holi Ka Uphar (Hindi)
Holi Ka Uphar (Hindi)
Product Details
BN ID: | 2940046045369 |
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Publisher: | Sai ePublications & Sai Shop |
Publication date: | 06/28/2014 |
Sold by: | Smashwords |
Format: | eBook |
File size: | 154 KB |
Language: | Hindi |